Print this page

हजारों साल पूर्व जनभाषा रही प्राकृत का आधुनिक पद्धति से अध्ययन जरूरी- डॉ. प्रियदर्षना जैन

लाडनूँ, 01 अगस्त 2022। भारतीय संस्कृति को जानना और समझना है, तो प्राकृत को जानना और समझना होगा। प्राकृत भाषा की आज उपेक्षा हो रही है, इसके लिए हम स्वयं जिम्मेदार हैं। यदि भारत को पुनः विश्वगुरू बनाना है तो प्राकृत भाषा और साहित्य का संरक्षण एवं संवर्द्धन करना होगा। यह विचार जैन विश्वभारती संस्थान के प्राकृत एवं संस्कृत विभाग द्वारा आयोजित मासिक व्याख्यानमाला के अन्तर्गत आयोजित ’प्राकृत भाषारू अतीत एवं वर्तमान’ विषयक विशेष व्याख्यान में मद्रास विश्वविद्यालय के जैनविद्या विभाग की विभागाध्यक्षा डॉ. प्रियदर्शना जैन ने व्यक्त किये। उन्होंने कहा कि प्राकृत भाषा जनभाषा के रूप में हजारों वर्ष पहले से विद्यमान रही है और आधुनिक भाषा की जननी के रूप में भी प्राकृत भाषा ही रही है। उन्होंने प्राकृत भाषा को मातृभाषा में पढाने पर तथा आधुनिक पद्धति को भी प्राकृत के अध्ययन में शामिल करने पर भी जोर दिया। इस अवसर पर अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए प्रो. दामोदर शास्त्री ने कहा कि प्राकृत भाषा को जानने और समझने के लिए हमें समर्पित भाव से इसका अध्ययन करना पडेगा। साथ ही प्राकृत के साथ-साथ संस्कृत को भी जानना और समझना चाहिए। अनेक उदाहरणों के माध्यम से उन्होंने दोनों भाषाओं के महत्त्व को प्रतिपादित किया। कार्यक्रम का प्रारम्भ छात्रा अदिति के मंगलाचरण से हुआ। स्वागत भाषण डॉ. समणी संगीत प्रज्ञा ने दिया तथा कार्यक्रम का संयोजन डॉ. सत्यनारायण भारद्वाज ने किया। कार्यक्रम में देश के विभिन्न क्षेत्रों से लगभग 40 प्रतिभागियों ने सहभागिता की। प्रतिभागियों की जिज्ञासाओं का समाधान भी इस व्याख्यान के अन्तर्गत किया गया।

Read 2668 times

Latest from