प्राकृत भाषा और साहित्य में निहित है भारतीय संस्कृति का मर्म- प्रो. अनेकान्त जैन
प्राकृत भाषा सम्बंधी मासिक व्याख्यानमाला में 38वाँ व्याख्यान आयोजित
लाडनूँ, 02 सितम्बर 2024। जैन विश्वभारती संस्थान के प्राकृत एवं संस्कृत विभाग के तत्वावधान में आयोजित की जा रही मासिक व्याख्यानमाला के 38वें व्याख्यान में श्रीलालबहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के प्रो. अनेकान्त कुमार जैन ने भारतीय संस्कृति में निहित करूणा, दया, अहिंसा, मैत्री जैसे महत्त्वपूर्ण तत्त्वों को समझने के लिए प्राकृत भाषा और साहित्य का अवगाहन करना पड़ेगा और उसमें भी विशेष रूप से श्रमण परम्परा द्वारा रचित साहित्य अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने प्राकृत भाषा एवं साहित्य के विकास में श्रमण-परम्परा के योगदान को सूक्ष्मता से व्याख्यायित करते हुए कहा कि आज हमारे समक्ष जितना भी प्राकृत साहित्य उपलब्ध है, उसमें से अधिकतम साहित्य श्रमण-परम्परा की देन है। श्रमणों द्वारा विरचित होने के कारण इस साहित्य में भारतीय संस्कृति को अधिक से अधिक उजागर करते हुए उसके मर्म अर्थात् अध्यात्म को सूक्ष्मता से व्याख्यायित किया गया है। प्रो. जैन ने एक लम्बी श्रमण परम्परा और उनके द्वारा लिखित साहित्य की सूची भी प्रस्तुत की। इस अवसर पर वयोवृद्ध विद्वान प्रो. दामोदर शास्त्री ने विचार रखते हुए कहा कि प्राकृत कोश साहित्य के विकास में भी श्रमण-परम्परा का विशेष योगदान रहा है। अध्यक्षीय व्यक्तव्य में प्रो. जिनेन्द्र जैन ने श्रमण परम्परा में अनेक मुनियों एवं साध्वियों का नामोल्लेख किया, जिन्होंने प्राकृत भाषा एवं साहित्य के विकास में अपना अमूल्य योगदान दिया। कार्यक्रम का प्रारम्भ सन्मति प्राकृत विद्यापीठ के विद्यार्थियों के मंगलाचरण से हुआ। स्वागत एवं विषय-प्रवर्तन डॉ. समणी संगीतप्रज्ञा ने किया। कार्यक्रम के अंत में डॉं. सब्यसाची सांरगी ने धन्यवाद ज्ञापन किया। कार्यक्रम का संयोजन डॉ. सत्यनारायण भारद्वाज ने किया। व्याख्यान में देश के विभिन्न क्षेत्रों से लगभग 30 प्रतिभागियों ने सहभागिता की।
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