इच्छापूर्ति से नहीं इच्छाओं का अभाव करने पर सुख मिलता है- प्रो. सुषमा
लाडनूँ, 3 जून 2022। जैन विश्वभारती संस्थान विश्वविद्यालय में पूनमचंद भूतोड़िया व्याख्यानमाला के अन्तर्गत आयोजित एक दिवसीय व्याख्यान में एमेरिट्स प्रोफेसर प्रो. सुषमा सिंघवी ने ‘अपरिग्रह का मनेावेज्ञानित विश्लेषण’ विषय पर कहा कि वस्तुओं का संग्रह करने से हम उन वस्तुओं की गुलामी की ओर बढते हैं और पदार्थों की गुलामी ही दुःख कारण होता है। मालिक का भाव होने पर ही वस्तुओं का त्याग संभाव है और संग्रह करने का अर्थ है हम उनके गुलाम बनते जा रहे हैं। वस्तुओं की प्राप्ति से कभी सुख नहीं मिल सकता है। धन मानव के लिए है मानव धन के लिए नहीं है। इच्छापूर्ति का सिद्धांत जैन दर्शन में अनुचित है। इच्छापूर्ति से नहीं बल्कि इच्छाओं का अभाव कर देने से सुख प्राप्त होता है। संस्थान के प्राकृत एवं संस्कृत विभाग के अन्तर्गत महादेवलाल सरावगी अनेकांत शोधपीठ द्वारा आयोजित इस वार्षिक व्याख्यानमाला में प्रो. सुषमा ने कहा कि तेरा और मेरा की भावना बचपन से ही पनपने लगती है, जिसे परिवार और समाज में बल मिलता है। विज्ञापनों के कारण भी व्यक्ति में वसतुओं को चाहने की भावना बलवती हो जाती है। अकेलेपन से भी व्यक्ति सम्पति के पीछे भागने लगता है। परिग्रह के पीछे वर्तमान से असंतोष और भविष्य का लोभ होता है। परिग्रह इकट्ठा करके जीव अपने को सुरक्षित महसूस करता है, जबकि ऐसा होता नहीं है। जरूरतों को पूरा करना तो उचित कहा जा सकता है, लेकिन इच्छाओं के जाल में फंसना गलत है। हमें परिग्रह के त्याग की ओर बढना चाहिए। चारों तरफ से परिग्रह करने की भावना का निषेध करना होगा। स्वेच्छा से अपने पास कम रखना और लोभ नहीं करना तथा दूसरों के लिए भी छोड़ देने की भावना को पनपाने की जरूरत है। आसक्ति व ममत्व को अभाव ही अपरिग्रह होता है। भारतीय संस्कृति में 100 हाथों से कमाने और 1000 हाथों से दान करने की बात आती है, जो अपरिग्रह का प्रतीक ही है। संयोजक प्रो. समणी ऋजुप्रज्ञा ने अंत में अपरिग्रह के सिद्धांत को जीवन में अपनाने पर बल देत हुए आभार ज्ञापित किया। कार्यक्रम का संचालन अच्युतकांत जैन ने किया।