‘आधुनिक युग में श्रावकाचार’ पर व्याख्यान प्रस्तुत

परम्पराओं को आधुनिक परिवेश के अनुरूप प्रस्तुत करें- प्रो. अनेकांत

लाडनूँ 11 मई 2022। आचार्य महाप्रज्ञ प्रज्ञा सवंर्द्धिनी व्याख्यानमाला में मुख्य वक्ता श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय नई दिल्ली के जैन दर्शन विभाग के प्रोफेसर डॉ. अनेकांत जैन ने ‘आधुनिक युग में श्रावकाचार’ विषय पर अपने व्याख्यान में कहा है कि आमतौर पर यह माना जाता है कि जैन दर्शन में लोग केवल खाने-पीने के नियमों से ही बंधे हुए होते हैं, लेकिन यह सही नहीं है। जैन दर्शन की आचार-मीमांसा केवल खाने-पीने तक ही सीमित नहीं है, बल्कि श्रावक के 12 व्रतों में से बहुत कम का सम्बंध खाने-पीने से हैं। 6 आवश्यक आचारों में भी खाने-पीने से मात्र 2 से ही सम्बंध हैं और वे भी पूर्ण नहीं हैं। जैन दर्शन की आचार मीमांसा के कारण ही समस्त जैनों को सभ्य समाज कहा जाता है। प्रत्येक दर्शन अपनी ही आचार-मीमांसा को शाश्वत घोषित कर देता है, यही समस्या है। वे यहां जैन विश्वभारती संस्थान विश्वविद्यालय के जैन विद्या एवं तुलनात्मक धर्म व दर्शन विभाग के तत्वावधान में आयोजित इस वार्षिक व्याख्यानमाला में अपना व्याख्यान प्रस्तुत कर रहे थे। उन्होंने कहा कि संसार के दुःख का नाश करना ही श्रावकाचार का मुख्य कर्तव्य होता है। हम परम्परा और विकास के अन्तर्द्वन्द्व से जूझ रहे हैं। इसलिए जरूरत है कि आज हम अपनी परम्पराओं को आधुनिक परिवेश के अनुरूप प्रस्तुत करें। हमें मर्यादा के भीतर रह कर ही अहिंसा आदि सिद्धांतों का पालन करना होगा, जो मर्यादा छोड़ कर संभव नहीं है। हम आज अपने दिग्व्रत और देशव्रत को भूलते जा रहे हैं। हमें मोक्षशास्त्र व समाजशास्त्र में संतुलन बैठाकर चलने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि दर्शन को समाज से अलग नहीं किया जा सकता है। श्रावकाचार को मुनि बनने का अभ्यास और श्रमणाचार को उद्देश्य बताते हुए उन्होंने कहा कि श्रावकाचार की नींव पर ही श्रमणाचार टिका है। कार्यक्रम का प्रारम्भ आकर्श जैन के मंगलाचरण से किया गया और प्रो. आनन्द प्रकाश त्रिपाठी ने स्वागत भाषण प्रस्तुत किया। अंत में प्रो. समणी ऋजुप्रज्ञा ने आभार ज्ञापित किया। कार्यक्रम का संचारलन अच्युतकांत जैन ने किया।

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