वैदिक परम्परा में निहित हैं जीव और प्राण कीे वैज्ञानिकता के सूत्र- डाॅ. साहू
जैविभा के शोध एवं विकास प्रकोष्ठ द्वारा मासिक व्याख्यानमाला का प्रथम व्याख्यान आयोजित
लाडनूँ, 17 अगस्त 2024। जैन विश्वभारती संस्थान के शोध एवं विकास प्रकोष्ठ द्वारा आयोजित मासिक व्याख्यानमाला के प्रथम व्याख्यान में जैनदर्शन, तुलनात्मक धर्म तथा दर्शन विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर डाॅ. रामदेव साहू ने ‘प्राण, आत्मा एवं देवता: स्वरूप एवं समीक्षा‘ विषयक व्याख्यान में कहा है कि भारतीय ज्ञाननिधि के स्रोत के रूप में सर्वविदित वेद वाङ्मय में विज्ञान विषयक चेतना उन्नीसवीं शताब्दी में पं. मधुसूदन ओझा ने प्रारम्भ की थी। तब से वेद में विज्ञान का अनुसन्धान निरन्तर किया जाता रहा है। वेदों में वर्णित जीवविज्ञान के अन्तर्गत मानव के आन्तरिक तत्त्वों का गूढ प्रतिपादन आश्चर्यजनक है। इनकी अवधारणायें, जो परवर्तीकाल में भारतीय दर्शन में पल्लवित हुई, उनका वास्तविक आधार वेद में दर्शनीय है और आज सम्पूर्ण विश्व इस तथ्य से परिचित है।
वेद में है जीव के प्रादुर्भाव एवं विकास की वैज्ञानिक प्रतिपत्ति
उन्होंने कहा कि जीव की संरचना छः प्रकार के प्राणों के मिश्रण से होती है तथा जीव और प्राण के साथ वह पृथ्वी पर आता है। वह अपने अस्तिकाय को प्राप्त कर गर्भस्थ शिशु के रूप में आविर्भूत होता है। शुक्र शोणित उसके मात्र सहायक सामग्री का कार्य करते हैं। वस्तुतः जीव अपने अस्तिकाय को कर्म के आधार पर ढूंढ लेता है और उसमंे प्रविष्ट हो जाता है। जीव के प्रवेश के बाद वह आत्मा को आकृष्ट करता है। आत्मा का भी जीव में प्रवेश नियत समयावधि में होता है तथा ज्योतिर्मय पिण्ड रूप देव रश्मियों से उसका पोषण होता है। अपने व्याख्यान में उन्होंने आत्मा के विभिन्न भेदों पर भी प्रकाश डाला। इस प्रकार वेद में जीव के प्रादुर्भाव एवं विकास के विषय में वैज्ञानिक विषय की प्रतिपत्ति उपलब्ध होती है। व्याख्यान के बाद सभी संकाय सदस्यों की ओर से व्यक्त विभिन्न जिज्ञासाओं का समाधान भी डाॅ रामदेव साहू द्वारा किया गया। इस विषय पर प्रो. दामोदर शास्त्री ने भी अपने विचार प्रस्तुत किये।
जीव की आयतनिक स्थिति और भव-भ्रमण पर जैनदृष्टि
शोध एवं विकास प्रकोष्ठ के निदेशक प्रो. जिनेन्द्र कुमार जैन ने कार्यक्रम का संयोजन किया तथा जैनदर्शन में वर्णित आत्म-तत्त्व पर प्रकाश डालते हुए वैदिक साहित्य में वर्णित आत्मा के स्वरूप से तुलना प्रस्तुत की। जीव की आयतनिक स्थिति और उसके भव-भ्रमण विषयक गत्यात्मक स्वरूप पर भी जैनदृष्टि से प्रकाश डाला। प्रारम्भ में उन्होंने इस मासिक व्याख्यानमाला की उपयोगिता पर प्रकाश डालते हुए कहा कि व्याख्यानों की यह श्रृंखला ज्ञान में अभिवृद्धि के साथ-साथ अकादमिक चर्चा का अवसर भी प्रदान करेगी। उन्होंने बताया कि कुलपति प्रो. बीआर दूगड़ के अकादमिक कार्यांे के प्रति प्रोत्साहन से यह व्याख्यानमाला शुरू की गई है, जो प्रत्येक माह के द्वितीय शनिवार को आयोजित होगी। कार्यक्रम के अन्त में प्राकृत एवं संस्कृत विभाग के सहायक आचार्य डाॅ. सत्यनारायण भारद्वाज ने धन्यवाद ज्ञापित किया। कार्यक्रम में संस्थान के समस्त संकाय सदस्य उपस्थित थे।
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