भारतीय साहित्य में अहिंसा एवं सामाजिक समरसता विषय पर दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन
भारतीय साहित्य में आदिकाल से ही समरसता का भाव रहा- डाॅ. तत्पुरूष
लाडनूँ, 31 जनवरी, 2018। जैन विश्वभारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय) के अहिंसा एवं शांति विभाग एवं योग एवं जीवन विज्ञान विभाग के तत्वावधान में राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर के अध्यक्ष डाॅ. इन्दुशेखर तत्पुरूष ने कहा है कि भारतीय साहित्य में आदिकाल से लेकर सदैव सामाजिक समरसता का भाव रहा है। आज सब जगह सूक्ष्म हिंसा एवं परोक्ष हिंसा बढ गई है, ऐसे में अहिंसा की आवश्यकता भी बढ गई है। उन्होंने अहिंसा के भेदों का वर्णन करते हुये कहा कि अधिक कपड़े पहनना एवं उपभोग वृति का होना भी हिंसा का ही एक रूप है। इससे सामाजिक समरसता नहीं पनप सकती है, यह विद्वेष एवं विरोध की जननी होती है। वे यहां संस्थान के अहिंसा एवं शांति विभाग एवं योग एवं जीवन विज्ञान विभाग के तत्वावधान में राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर के प्रायोजन में भारतीय साहित्य में अहिंसा एवं सामाजिक समरसता विषय पर दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता करते हुये सम्बोधित कर रहे थे। उन्होंने बताया कि विश्व का पहला महाकाव्य वाल्मीकि कृत रामायण है। इसमें भेदभाव को महत्व नहीं देकर सामाजिक समरसता को महत्व दिया गया है। वाल्मीकि रामायण के पहले ही अध्याय में बताया गया है कि यह सब वर्णों के पठन के लिये उपयोगी है।
अहिंसा पर लाडनूं घोषणा पत्र जारी हो
इस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि महाराज गंगासिंह विश्वविद्यालय बीकानेर के कुलपति प्रो. भागीरथ सिंह बिजारणियां ने कहा कि भारतीय साहित्य में अहिंसा परमोधर्मः एवं वसुधैव कुटुम्बकम से अहिंसा एवं सामाजिक समरसता की बातें स्पष्ट होती है। भारतीय संस्कृति में नैतिक मूल्य व जीवन मूल्य समाहित हैं। हमारी संस्कृति का आधार ही त्याग, ममता तथा जीवो और जीने दो की भावनाएं हैं। सद्भाव, सहनशीलता व त्याग समरसता के आधार है। हमारी संस्कृति प्रकृति, पेड़ों आदि की रक्षा करती है। प्रकृति पर विजय के प्रयास से भी हिंसा फैलती है। आज विश्व भर में अहिंसा का प्रदूषण फैला हुआ है, इसके लिये समाज में परिवर्तन की आवश्यकता है, जो कानून से या राजनीतिक परिवर्तन से नहीं हो सकता, बल्कि खुद को बदलने से ही सामाजिक समरसता आ सकती है। उन्होंने कहा कि जैन विश्वभारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय) देश में अहिंसा का सबसे बड़ा केन्द्र है। यहां अहिंसा का पाठ पढाया जाता है। उन्होंने कहा कि इस राष्ट्रीय संगोष्ठी का अहिंसा एवं सामाजिक समरसता पर एक लाडनूं घोषणा पत्र जारी होना चाहिये और यहां समागत समस्त सहभागियों को एक संकल्प लेना चाहिये कि वे जातिभेद, लिंगभेद, वर्गभेद नहीं करेंगे तथा प्रकृति के साथ छेड़छाड़ नहीं करेंगे, हिंसा का प्रयास नहीं करेंगे एवं वायु प्रदूषण नहीं करेंगे।
देश के हर ग्रंथ में समाई है अहिंसा
इस संगोष्ठी के मुख्य वक्ता वर्द्धमान महावीर विश्वविद्यालय कोटा के पूर्व कुलपति प्रो. नरेश दाधीच ने अपने सम्बोधन में कहा कि साहित्य में अभी तक अहिंसा विमर्श शुरू नहीं हुआ है। भारतीय संदर्भ में अहिंसा का सिद्धांत जैन व बौद्ध धर्म का माना जाता है, लेकिन भारतीय साहित्य के हर ग्रंथ में अहिंसा का उल्लेख किसी न किसी रूप में मिलेगा। उन्होंने कहा कि अहिंसा का अर्थ प्रेम, सतय, अचैर्य आदि है, लेकिन प्रेम की भावना से अधिक तेज प्रतिशोध की भावना होती है, जो युद्ध का कारण बनती है। प्रतिशोध को मिटाने के लिये हमें प्रेम भावना को बढावा देने वाला साहित्य पढना चाहिये तथा आदर्श पुरूषों के जीवन के अनुरूप अपना व्यवहार ढालना चाहिये।
दलित साहित्य वर्ग संघर्ष पैदा करता है
इस कार्यक्रम के सारस्वत अतिथि प्रख्यात चिंतक व लेखक हनुमान सिंह राठौड़ ने अहिंसा व सामाजिक समरसता को अलग-अलग नहीं बताकर उनके मूल में एक ही भावना बंधुता को बताया तथा कहा कि बंधुता आने पर समता आयेगी और समता से समरसता आयेगी। उन्होंने डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत को गलत बताते हुये कहा कि समाज की स्थापना में यह सिद्धांत अनुचित है, अगर डार्विन के अनुसार होता तो हम कभी जंगल से बाहर नहीं निकल सकते थे। बंधुता से कमजोर के उत्थान की भावना आती है और हिंसा का अभाव हो जाता है। डार्विन का सिद्धांत हिंसा का है। परिवार भाव समाप्त होने पर हिंसा की प्रवृति बनती है। उन्होंने दलित साहित्य कसा जिक्र करते हुय कहा कि दलित साहित्य के नाम पर वैमनस्यता फैलाई जा रही है, यह समरसता में बाधक है। इसमें ऐसा साहित्य रचा गया है जो सामाजिक वर्ग संघर्ष पैदा करता है।
साहित्य की दृष्टि कल्याण की रही है
जैन विश्वभारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय) के शोध निदेशक प्रो. अनिल धर ने संगोष्ठी का परिचय प्रस्तुत करते हुये कहा कि साहित्य सृजन केवल मानसिक विलासिता नहीं है। इसमें दृष्टि आत्म कल्याण एवं पर कल्याण की रहती है। उन्होेंने भारत की संस्कृति को सर्वश्रेष्ठ बताते हुये कहा कि यहां कल्याण मार्ग दिखलाने वाले श्रेष्ठ साहित्य की रचना की गई। वेदों से लेकर आधुनिक साहित्य तक में यहां मानवीय मूल्यों की स्थापना की गई है। यहां कहीं भी घृणा, द्वेष, युद्ध को बढाने वाले साहित्य का सृजन नहीं किया गया। यहां साहित्य रचना की दृष्टि स्वार्थपरक व वस्तुपरक नहीं रही है, केवल आत्म-कल्याण व परोपकार की रही है। प्रारम्भ में अहिंसा एवं शांति विभाग के विभागाध्यक्ष डाॅ. जुगल किशोर दाधीच ने स्वागत वक्तव्य प्रस्तुत किया। कार्यक्रम का प्रारम्भ समणी मृदुप्रज्ञा के मंगल-संगान से किया गया। अंत में योग व जीवन विज्ञान विभाग के विभागाध्यक्ष डाॅ. प्रद्युम्न सिंह शेखावत ने आभार ज्ञापित किया। कार्यक्रम में दूरस्थ शिक्षा निदेशक प्रो. आनन्द प्रकाश त्रिपाठी, समाज कार्य विभाग के निदेशक डाॅ. बी. प्रधान, डाॅ. हरि राम परिहार, डाॅ. सुमन मौर्य, प्रो. समणी ऋजुप्रज्ञा, डाॅ. सुरेन्द्र सोनी चूरू, डाॅ. गजादान चारण, सूरज सोनी, डाॅ. रेखा तिवाड़ी, डाॅ. रूचि मिश्रा, बबिता आदि उपस्थित थे।
प्राचीन साहित्य की आधुनिक शब्दों में व्याख्या की जावे- राठौड़
1 फरवरी 2018। दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का समापन अकादमी के अध्यक्ष डाॅ. इन्दुशेखर तत्पुरूष की अध्यक्षता में समारोह पूवर्क किया गया। समारोह के मुख्य अतिथि प्रख्यात चिंतक व लेखक हनुमान सिंह राठौड़ ने भारतीय संस्कृति व समरसता के साहित्य पर आक्रमणों पर चिंता जताते हुये कहा कि हमें पहले इन आक्रमणों को समझना होगा, फिर उसके जवाब में अपने प्राचीन साहित्य को आधुनिक शब्दावली में युवाओं के लिये व्याख्यात्मक रूप में लिखना होगा, तभी परिवर्तन संभव हो पायेगा। उन्होंने टीवी चैनलों द्वारा पारिवारिक विभेदों को बढावा देने वाले धारावाहिक दिखाये जाने, विज्ञापनों के रूप में अपनी वस्तुओं को बेचनेे के लिये उपभोक्तावादी संस्कृति को जन्म देने, इच्छायें एवं ईर्ष्या पैदा करने, मोबाईल के कारण घरों में संवादहीनता के पैदा होने, आधुनिकता के नाम पर पश्चिम का अंधनुकरण करने और मजहब व सम्प्रदाय के नाम पर मनुष्यों को दो भागों में विभाजित करके समरसता को समाप्त करने को चिंताजनक बताया। दलित साहित्य के नाम से विभेद पैदा करने को भी उन्होंने आड़े हाथों लिया। उन्होंने कहा कि प्रवचनों से जीवन को नहीं बदला जा सकता, क्योंकि 24 घंटे प्रवचनों वाले चैनल कोई परिवर्तन नहीं कर पाये हैं; इसके लिये कर्म को महत्व देना होगा।
साहित्य से समाप्त होगी परम्परागत असमानता
समारोह केे मुख्य वक्ता जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय जोधपुर के नेहरू अध्ययन केन्द्र के निदेशक प्रो. प्रताप सिंह भाटी ने बौद्ध साहित्य को अहिंसा की दिशा में महत्वपूर्ण बताते हुये कहा कि महान सम्राट अशोक जैसे क्रूर विजेता का हृदय परिवर्तन बुद्ध की शिक्षाओं से हुआ था और उसने अहिंसा को अपना लिया था। उन्होंने भगवान महावीर और उनके पश्चातवर्ती आचार्यों, अनुयायियों के उपदेशों का प्रकाशन अहिंसा का अद्भुत साहित्य है। महात्मा गांधी ने भी स्वतंत्रता आंदोलन को अहिंसा के माध्यम से संचालित किया था। उनके लेखन, कर्म और वचन भी अहिंसा के लिये महत्वपूर्ण साहित्य के अंग है। सामाजिक समरसता के बारे में बोलते हुये उन्होंने कहा कि असमानता की उत्पति केवल वर्ग और जातीय भेद से नहीं है, बल्कि इसके अन्य कारण हैं, जिन पर विचार करना चाहिये। उन्होंने कहा कि वैदिक साहित्य कहीं भी जातिय भेद प्रकट नहीं करता, बल्कि उसमें कर्म पर आधारित विभाजन है, लेकिन बाद में उनसे ही जातियां बन गई, जिसे लोगों ने अपनी सुविधा के लिये निर्मित किया था। उन्होंने परम्परागत असमानता को समाप्त करने की आवश्यकता सामाजिक समरसता के लिये आवश्यक बताई।
समारोह की अध्यक्षता करते हुये राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर के अध्यक्ष डाॅ. इंदुशेखर तत्पुरूष ने अपने अध्यक्षीय सम्बोधन में कहा कि आज के समय में सर्वाधिक जरूरत है अहिंसा व सामाजिक समरसता की, जो केवल व्याख्यानों से संभव नहीं है, इसके लियेे कर्म और साहित्य की जरूरत है। उन्होंने कहा कि सदा प्रासंगिक रहने वाले अहिंसा व सामाजिक समरसता के विषय पर अकादमी ने अपने इस कार्यक्रम को बाहर करने का निर्णय लेते हुये जैन विश्वभारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय) में करना तय किया, जो एक महान स्थली है। इस संगोष्ठी से नये आयाम खुलेंगे तथा गोष्ठी सार्थक सिद्ध होगी। वर्द्धमान महावीर खुला विश्वविद्यालय कोटा के क्षेत्रीय अध्ययन केन्द्र के निदेशक डाॅ. अन्नाराम शर्मा ने कहा कि आज वर्गों के बीच खाई बढती जा रही है, उत्पीड़न बढता जा रहा है। ऐसे में समस्या के मूल कारण को एवं साहित्य के दायित्व को समझना आवश्यक है। व्यक्ति की इच्छा व घोर उपभोग की प्रवृति ही अहिंसा व असमानता का कारण है। अहंकार व गहराता हुआ व्यक्तिवाद के कारण हिंसा है। साहित्यकार मन का व आत्मा का परिष्कार करता है तथा अहं का तिरस्कार करता है। त्याग भारतीय साहित्य की पहचान है।
व्यवहार में आये सामाजिक समरसता
जैन विश्वभारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय) के दूरस्थ शिक्षा निदेशक प्रो. आनन्द प्रकाश त्रिपाठी ने कहा कि सामाजिक समरसता हमारे व्यवहार में होनी चाहिये, केवल व्याख्यान में नहीं। सामाजिक समरसता का आधार प्रेम है, इसे जीवन में उतारें। उन्होंने आचार्य महाश्रमण द्वारा की जा रही अहिंसा यात्रा एवं ईमानदारी, नैतिकता व नशामुक्ति के संदेश के बारे में जानकारी दी तथा कहा कि देश में सामाजिक समरसता का बहुत बड़ा कार्य यह हो रहा है। उन्होंने अणुव्रत आंदोलन की जानकारी भी दी। योग एवं जीवन विज्ञान विभाग के विभागाध्यक्ष डाॅ. प्रद्युम्न सिंह शेखावत ने प्रारम्भ में संगोष्ठी का प्रतिवेदन प्रस्तुत करते हुये बताया कि दो दिनों की इस संगोष्ठी में विभिन्न सम्बंधित उप-विषयों पर 4 तकनीकी सत्र आयोजित किये गये। संगोष्ठी में कुल 12 प्रतिभागियों ने पंजीयन करवाया तथा कुल 62 शोध-पत्र प्रस्तुत किये गये, जिनमें से 31 पत्रों का वाचन किया गया। कार्यक्रम का शुभारम्भ समणी मंजुल प्रज्ञा के मंगल संगान के साथ किया गया। कार्यक्रम में राजस्थान साहित्य अकादमी के के सचिव डाॅ. विनीत गोधल का सम्मान भी किया गया। अतिथियों का सम्मान प्रो. अनिल धर, डाॅ. विवेक माहेश्वरी, डाॅ. विकास शर्मा, डाॅ. युवराज सिंह खंगारोत, डाॅ. हेमलता जोशी आदि ने किया। अंत में डाॅ. रविन्द्र सिंह राठौड़ ने आभार ज्ञापित किया। कार्यक्रम का संचालन डाॅ. जुगल किशोर दाघीच ने किया।
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