आचार्य महाप्रज्ञ जन्म शाताब्दी वर्ष में आचार्य महाप्रज्ञ कृत पुस्तक ‘अवचेतन मन से सम्पर्क’ की समीक्षा
अवचेतन मन से संपर्क पुस्तक में महाप्रज्ञ ने अखंड व्यक्तित्व निर्माण का मार्ग बताया
लाडनूँ, 11 फरवरी 2020।आचार्य महाप्रज्ञ जन्म शाताब्दी वर्ष के अन्तर्गत जैन विश्वभारती संस्थान के योग व जीवन विज्ञान विभाग में पुस्तक समीक्षा कार्यक्रम में आचार्य महाप्रज्ञ कृत पुस्तक ‘अवचेतन मन से सम्पर्क’ की समीक्षा डाॅ. हेमलता जोशी द्वारा प्रस्तुत की गई। डाॅ. जोशी ने बताया कि चेतना एक ऐसा तत्त्व है जो प्राणी को उसके अस्तित्व और उसके पर्यावरण का ज्ञान कराती है। चेतना के तीन स्तर माने गए हैं- चेतन, अवचेतन और अचेतन। चेतन का संबंध प्रत्यक्ष ज्ञान से है जिसमें हमारी इंद्रियां प्रत्यक्ष जुड़ी रहती हैं तो अवचेतन का संबंध अप्रत्यक्ष ज्ञान से है। अचेतन का संबंध इन दोनों से परे है जहां का हमें कोई ज्ञान नहीं है। अचेतन हमारे व्यवहार का मूल है। हमारे भीतर जो संस्कार, जो इच्छाएं, विश्वास जमा हैं, चाहे वे सकारात्मक हों या नकारात्मक, वही व्यवहार रूप में व्यक्त होते हैं। अतः नकारात्मकता को दूर करने हेतु अचेतन का परिष्कार और सकारात्मकता को बढ़ाने हेतु अचेतन को प्रशिक्षित करना आवश्यक माना गया है। आचार्य महाप्रज्ञ ने इस पुस्तक को तीन भागों में बांटा है- ज्ञात-अज्ञात, मन की सीमा और चेतना के आयाम। इनमें वर्तमान की तीन ज्वलंत समस्याओं को समाहित करने का प्रयास किया है। वे समस्याएं है- मानसिक अशांति, हिंसा की उग्रता और नैतिक चेतना का अभाव। इनके समाधान के लिए बौद्धिक और भावात्मक विकास का संतुलन, विधायक दृष्टिकोण और संबंधों के नये क्षितिज को महत्त्व दिया है, जिसके लिए अवचेतन और अचेतन मन से संपर्क स्थापित करने की बात कही है। आचार्य महाप्रज्ञ ने अखंड व्यक्तित्व की परिकल्पना की है जिसमें ज्ञात-अज्ञात अर्थात् बाह्य और आंतरिक पक्ष के संतुलन की बात कही है। जिसके लिये विधायक दृष्टिकोण, यथार्थ चिंतन और अनुशासन आदि के साथ इनके मूल भाव को परिष्कृत करने पर सर्वाधिक बल दिया है। पुस्तक में वैज्ञानिक तथा दार्शनिक दोनों पक्षों को महत्त्व दिया है। चित्त को चंचल करने वाले हैं-नाड़ी संस्थान, आनुवांशिकता, कर्म, कर्म शरीर, कर्म शरीर के प्रभाव और उनसे उत्पन्न होने वाली प्रतिक्रियाएं- संज्ञा, संस्कार, वृत्ति आदि। समाधान है चित्त का निरोध। विज्ञान के अनुसार हमारा मस्तिष्क विद्युत प्रवाहों और रसायनों से प्रभावित होता है। रसायनों, विद्युत तरंगों का भावों से गहरा संबंध है। ध्यान के प्रयोगों में पे्रक्षाध्यान के विभिन्न प्रयोग कायोत्सर्ग, श्वासपे्रक्षा, चैतन्यकेन्द्र पे्रक्षा, लेश्याध्यान, अनुपे्रक्षाओं को विशेष महत्त्व दिया है, जिनका संबंध भाव परिष्कार से है। आचार्य महाप्रज्ञ की ‘‘अवचेतन मन से संपर्क’’ नामक पुस्तक अखंड व्यंिक्तत्व के निर्माण में अपनी महती भूमिका अदा करती है। इसमें एक ओर अनेक मूल्यों को व्यवहारगत करने की बात है तो दूसरी ओर भाव परिष्कार को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना है। मूल्यों को व्यवहारगत करने से भाव शुद्ध होते हैं और भाव शुद्धि से मूल्यों का विकास होता है। जीवन में सुख-शांति और आनंद की चाह रखने वालों के लिए यह पुस्तक अनेकांतिक दृष्टि से अपना विशेष स्थान रखती है।
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