‘मन’ के द्वारा दर्शन हो जाता है, पर ‘मन’ का दर्शन कभी नहीं हो सकता- प्रो. धर्मचंद जैन
10 दिवसीय विषय राष्ट्रीय कार्यशाला के सातवें दिन दर्शन और ज्ञान के विभिन्न भेदों पर व्याख्यान
लाडनूँ, 25 फरवरी 2025। भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद नई दिल्ली के प्रायोजन में जैन विश्वभारती संस्थान के जैनविद्या एवं तुलनात्मक धर्म-दर्शन विभाग के तत्वावधान में चल रही 10 दिवसीय ’आचार्य सिद्धसेन दिवाकर कृत सन्मतितर्क प्रकरण’ विषयक ग्रंथ पर आधारित राष्ट्रीय कार्यशाला के सातवें दिन जैन दर्शन के प्रतिष्ठित विद्वान एवं तीर्थंकर महावीर विश्वविद्यालय के जैन अध्ययन केंद्र में प्रोफेसर प्रो. धर्मचंद जैन ने अपने व्याख्यान देते हुए सन्मतितर्क के सूत्रों का विश्लेषण प्रस्तुत करते हुए बताया कि इसमें आचार्य द्वारा दर्शन और ज्ञान के विभिन्न भेदों, पहलुओं और उदाहरणों पर प्रकाश डाला। प्रो. जैन ने ग्रंथ की 20वीं गाथा पर अपनी व्याख्या प्रस्तुत करते हुए चक्षु दर्शन, अचक्षु दर्शन, अग्नि दर्शन और केवली दर्शन के बारे में उन्होंने विस्तार से बताया। उन्होंने कहा कि दर्शन को शब्द से कहना कठिन है, लेकिन ज्ञान को कहा जा सकता है। ‘केवल ज्ञान’ भी विशेष शब्द युक्त ही होता है। चेतना से जब जानने की इच्छा करते हैं, तो दर्शन होगा और फिर ज्ञान होगा। दर्शन से ज्ञान का उद्गम होता है। ज्ञान से दर्शन नहीं हो सकता। उन्होंने शुद्ध ज्ञान, मति ज्ञान, अवधि ज्ञान आदि पांच प्रकार के ज्ञान का विवरण प्रस्तुत किया। उन्होंने बताया कि ‘मन’ के द्वारा दर्शन हो सकता है, लेकिन ‘मन’ का दर्शन कभी नहीं हो सकता। ‘केवल ज्ञान’ में मन के पर्याय का अनुमान हो जाता है, लेकिन मन का दर्शन नहीं हो सकता। केवल ज्ञानी को कभी पढने की आवश्यकता भी नहीं होती। कार्यक्रम के अध्यक्ष जैन विद्या एवं तुलनात्मक धर्म व दर्शन विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो. आनन्द प्रकाश त्रिपाठी ने बताया कि आचार्य सिद्धसेन दिवाकर रचित सन्मति तर्क प्रकरण एक महनीय ग्रंथ है। इस ग्रंथ में जैन दर्शन के अनेकान्तवाद से जुड़े सिद्धांतों का विश्लेषण किया गया है। साथ ही न्याय-वैशेषिक और बौद्ध दर्शनों की समीक्षा भी की गई है। इसमें सिद्धसेन ने शास्त्रीय जैन नय को दो श्रेणियों में बांटा है और तर्क दिया है कि वास्तविकता के संभावित नय या दृष्टिकोणों की संख्या असीमित है। ग्रंथ में श्रुतदर्शन की स्वतंत्र अवधारणा का निरसन किया गया है। द्रव्याधिकादि नय, सप्तभंगी, और ज्ञानदर्शनाभेदवाद जैसे जैन दर्शन के कई विषयों की चर्चा इस ग्रंथ में सिद्धसेन ने की है। कार्यक्रम के अंत में इर्या जैन ने आभार ज्ञापित किया। कार्यक्रम का संचालन डा. मनीषा जैन ने किया।
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