भूमिका न हो तो किसी वस्तु का ज्ञान नहीं हो सकता-प्रो सिंघई

लाडनूँ, 27 फरवरी 2025। जैन विश्वभारती विश्वविद्यालय के जैनविद्या एवं तुलनात्मक धर्म-दर्शन विभाग के तत्वावधान एवं भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली के प्रायोजकत्व में आयोजित की जा रही दस दिवसीय राष्ट्रीय कार्यशाला में ’आचार्य सिद्धसेन दिवाकर कृत सन्मतितर्कप्रकरण’ विषयक व्याख्यान के तहत राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान जयपुर के जैन धर्म दर्शन तथा प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य के प्रख्यात विद्वान प्रो. श्रेयांस कुमार सिंघई ने सम्मतितर्कप्रकरण के सामान्य विशेष कांड पर व्याख्यान दिया। प्रो सिंघई ने सन्मतिसूत्र की करीब 17 गाथाओं की मीमांसा करते हुए कहा कि दर्शन उपयोग की प्रथम भूमिका है, जिसे विशेष रहित या सामान्य ग्रहण भी कहते है। यदि इस प्रकार की भूमिका न हो, तो किसी वस्तु का ज्ञान नहीं हो सकता। उन्होंने कहा कि वास्तव में जीव वस्तुओं को जानते समय ’मैं किसी वस्तु विशेष को जानूं या नहीं जानूं’ इस प्रकार का विशेष पक्षपात न कर सामान्य रूप से जानता है। प्रो सिंघई ने देश भर से आये हुए विद्वानों को प्रशिक्षण देते हुए कहा कि उपयोग चेतना का ही परिणमन है, जो नय की अपेक्षा जीव की एक पर्याय मात्र है। उपयोग के दर्शनोपयोग और ज्ञानपयोग की चर्चा करते हुए इनके अनेक भेदों उपभेदों की व्याख्या की। उन्होंने विविध उदाहरणों के माध्यम से समझाते हुए कहा कि सामान्य का अर्थ द्रव्य (आत्मा) है। उन्होने क्षेत्र एवं काल के सिद्वांत के आधार पर वस्तुज्ञान की प्रक्रिया को समझाया। इस अवसर पर कार्यशाला के समन्वयक प्रो आनन्दप्रकाश त्रिपाठी ने प्रो सिंघई का परिचय दिया एवं उनका शॉल व मोमेन्टो भेंट कर सम्मान किया। सत्र का संयोजन सुश्री इर्या जैन ने किया। आभार डॉ सुनीता इंदोरिया ने किया।

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