इच्छाओं पर नियंत्रण से ही शांति संभव- प्रो. सुषमा सिंघवी,

दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के विभिन्न सत्रों में 29 शोध पत्र प्रस्तुत

लाडनूँ, 22 मार्च 2025। भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद नई दिल्ली के प्रायोजकत्व में जैन विश्वभारती संस्थान के अहिंसा एवं शांति विभाग के तत्वावधान में यहां सेमिनार हाॅल में ‘शाश्वत शांति प्राप्त करने और सांस्कृतिक विकास को बढ़ावा देने के लिए दार्शनिक साधन’ विषय पर दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के समापन सत्र में मुख्य वक्ता प्रो. सुषमा सिंघवी जयपुर ने कहा कि शांति पहले भीतर महसूस होनी चाहिए, तभी बाहर भी महसूस होने लगेगी। अपने अंदर शांति की वेव्स होगी तो वो बाहर की शांति को कैच कर सकेगी, तभी उसका प्रभाव पड़ेगा। व्यक्ति से प्रारम्भ होकर ही शांति विश्व की तरफ जा सकेगी। उन्होंने कहा कि इच्छाओं पर नियंत्रण से ही शांति संभव हो सकेगी। विश्व के सारे स्रोत कम होने का भ्रम फैलाया जा रहा है। हम केवल अपनी जरूरतों पर ध्यान दें, संग्रह नहीं करें, तो स्रोतों की न्यूनता नहीं लगेगी। उन्होंने लोभ, लालच नहीं करके संतोष करने की जरूरत पर बल दिया और कहा कि संग्रह के कंपीटिशन के कारण दमन और शोषण होता है। हमें परस्पर कम्पीटिशन की जगह हमें कोआॅपरेशन करना चाहिए। कम्पीटिशन सबकी स्वतंत्रता में बाधक होता है। परिग्रह और आसक्ति कि यह मेरा है, की बजाए हमें यह सबका है की सोच रखनी होगी। प्रो. सिंघवी ने शांति को व्यवहार में लाना जरूरी बताया और कहा कि अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकांत से शांति संभव है। शांति, सौहार्द्र, स्नेह अपने अंदर से शुरू करके उसका विस्तार करना चाहिए। उन्होंने विभिन्न संस्कृतियों में परस्पर संवाद की आवश्यकता बताई और विविधताओं में समन्वय पुल बनाने से आएगा, दीवार बनाने से नहीं। उन्होंने शांति को शिक्षा पद्धति में शांमिल करने की जरूरत बताई और कहा कि हर स्तर के पाठ्यक्रम में शांति का अध्याय होना चाहिए। प्रारमभ से लेकर उच्च शिक्षा तक हर कोर्स में शांति को जोड़ें और शांति की समझ पैदा करें।

जहां निर्भीकता होगी, वहां शांति होगी

मुख्य अतिथि उत्तराखंड संस्कृत विश्वविद्यालय देहरादून के प्रो. दिनेश चंद्र शास्त्री ने छोटी-बड़ी हर हिंसा के दुष्प्रभावों को बताते हुए कहा कि जितने पशु काटे जाते हैं, उतने ही भूकम्प आते हैं। यह अध्ययन किया जा चुका। उन्होंने सतत् शांति के लिए सभी ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों में शांति का समावेश आवश्यक बताया और इसके लिए प्रतिदिन की ईश्वराधना व चिंतन को जरूरी माना। प्रो. शास्त्री ने टुकड़ों में शांति के बजाय समग्र शांति, समग्र कल्याण को महत्व दिया और कहा कि भारतीय जीवन मूल्यों को हृदयंगम करने के लिए अपने को कर्तव्यों पर केन्द्रित करें। ‘वसुधेव कुटुम्बकम्’ की भावना कर्तव्य-पालन से ही जुड़ी हुई है। उन्होंने कहा कि जहां निर्भीकता होगी, अभय होगा, वहां शांति होती है। विश्व शांति के उपायों में उन्होंने दोनों संध्याकाल में ईश्वर का ध्यान, चतुर्दिक भावना, जिसमें मानसिक शांति व चित की निर्मलता, सुखी लोगों के साथ मैत्री, दुःखी, रोगी, महिला, बच्चों के साथ करूणा, मित्रों के साथ मुदिता और सामाजिक आचरण मे ंयम का पालन आदि की आवश्यकताएं प्रतिपादित की। अध्यक्षता करते हुए प्रो. केएन व्यास ने तकनीकी साधनों-सुविधाओं के विकास, वैश्विक समाज और विकसित समाज आदि के बावजूद शांति नहीं रहने में 5 बाधाएं बताई और कहा कि जातिवाद, सम्प्रदावाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद और आतंकवाद के कारण मनुष्य शांत नहीं रह पाता। इन सबके कारण हिंसा होती है। जहां कोई भी स्थिति वाद का रूप ले लेती है, वह घ्गड़ा-फसाद का कारण बन जाती है।

तीन श्रेष्ठ शोधपत्र वाचकों को किया पुरस्कृत

इस दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में विभिन्न सत्रों में कुल 29 शोध-पत्र प्रस्तुत किए गए। विभिन्न उप विषयों पर प्रस्तुत इन शोधपत्रों में से तीन श्रेष्ठ पत्रों का चयन किया जाकर प्रस्तुतकर्ता सहभागियों को इस अवसर पर पुरस्कृत भी किया गया। इनमें जेएनयू के डा. निशांत कुमार, किरण जैन व सुनयना शामिल है, जिन्हें अतिथियों ने प्रशति पत्र और पुरस्कार प्रदान किए। कार्यक्रम का प्रारमभ मुमुक्षु बहिन के मंगलसंगान से किया गया। डाॅ. रविन्द्र सिंह राठौड़ ने अतिथि परिचय एवं स्वागत वक्तव्य प्रस्तुत किया। दो दिवसीय संगोष्ठी का प्रतिवेदन कार्यक्रम की संयोजन सचिव डाॅ. लिपि जैन ने किया। अंत में विभागाध्यक्ष डाॅ. बलबीर सिंह ने आभार ज्ञापित किया।

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