जैन विश्वभारती संस्थान के शिक्षा विभाग के तत्वावधान में दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन
सीखने की शैली ही नवीन ज्ञान की रचना को संभव बनाती है- प्रो. ज्ञानानी
लाडनूँ 23 सितम्बर 2018। जैन विश्वभारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय) के शिक्षा विभाग के तत्वावधान में आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के शुभारम्भ सत्र में शिक्षण शैली के सम्बंध में बोलते हुये मुख्य अतिथि प्रो. टीसी ज्ञानानी ने कहा है कि प्राच्य कक्षा शिक्षण विधि में केवल व्याख्यान व प्रवचन ही शामिल थे, लेकिन अब इसमें गतिविधि व प्रबंधन के सिद्धांत भी शामिल कर लिये गये हैं। शिक्षण की विभिन्न विधियों में एक नयी संकल्पना रचनावाद को लेकर आई है। इसमें विद्यार्थी द्वारा निरन्तर सीखने, अपने ज्ञान में वृद्धि करने, उसमें विस्तार व प्रसार करने तथा संशोधन करने की प्रक्रिया लगातार जारी रखता है, कक्षा प्रबंधन के अन्तर्गत विद्यार्थी के सीखने की शैली को समझने की जरूरत है, क्योंकि सीखने की शैली ही नवीन ज्ञान की रचना संभव बनाती है। बच्चों के ज्ञानात्मक व्यवहार में निरन्तर अंतर आया है। स्मार्ट फोन जैसे आविष्कारों ने शिक्षण शँैली को बदला है। कक्षा के वातावरण का प्रबंध छात्रों के सीखने पर पूरा प्रभाव डालता है।
प्रभावी शिक्षण के लिये प्रभावी संचार जरूरी
सत्र की अध्यक्षता करते हुये रजिस्ट्रार विनोद कुमार कक्कड़ ने कहा कि शिक्षण की तकनीक निरन्तर बदलती रहती है। इस प्रकार का बदलाव हर प्रबंधन एवं कार्य में आता है, लेकिन आवश्यकता इस बात की है कि हम इस बदलाव में अपने आप को कैसे ढालें। उन्होंने मनोवैज्ञानिक रूप से विद्यार्थियों में आने वाले अन्तर को समझ कर उनमें ज्ञान का संचार करने पर जोर दिया तथा कहा कि जब तक हमारे द्वारा सिखाई गई बात विद्यार्थी के मन-मस्तिष्क तक नहीं समाती तो वह सही संख्या नहीं कहा जा सकता। शिक्षा का प्रस्तुतिकरण एवं उसका छात्र में ग्रहण दोनों ही प्रभावी होने आवयश्क है और ऐसी पद्धति ही शिक्षण की श्रेष्ठ प्रणाली कही जा सकती है। विशिष्ट अतिथि प्रो. गोपीनाथ शर्मा ने संगोष्ठी में कहा कि जहां हमें ज्ञान से अपने असाचरण में बदलाव करना चाहिये, वैसे ही हमें अपने आचरण, व्यवहार और शब्द प्रयोग से विद्यार्थी में सिखाने का काम भी करना चाहिये।
सूचना और ज्ञान के अंतर को समझना आवश्यक
विशिष्ट अतिथि प्रो. संतोष मित्तल ने अपने सम्बोधन में कहा कि शिक्षा के लिये सम्प्रेषण महत्वपूर्ण है। जैसे-जैसे समय, परिस्थितियां बदलती है, वैसे-वैसे आवश्यकतायें बदलती है और आवश्यकतायें बदलने से शिक्षा के तरीकों में भी बदलाव आते हैं। हमें हमेशा शिक्षण को प्रभावी बनाने का प्रयास करना चाहिये। विषय, टॉपिक, परिवेश, विश्वविद्यालय के उद्देश्य, सीखने वाले छात्र आदि के आधार पर हमारे द्वारा शिक्षण कार्य करवाने की विधि में बदलाव आता है। उन्होंने शिक्षण की सुविधा पद्धति, तुलनात्मक पद्धति, सहकारी पद्धति आदि के बारे में बताया तथा कहा कि शिक्षण को प्रभावी बनाने के लिये हमें खुद भी निरन्तर पढना होगा और अपनी समीक्षा भी करते रहना होगा। उन्होंने सूचना और ज्ञान के अंतर को भी समझाया और कहा कि दोनों के बीच संतुलन आवश्यक है। ज्ञान की क्रियान्विति व्यवहार में होनी आवश्यक है। सत्र के प्रारम्भ में शिक्षा विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो. बीएल जैन ने अतिथियों का परिचय करवाया। डाॅ. मनीष भटनागर ने राष्ट्रीय संगोष्ठी के उद्देश्यो ंपर प्रकाश डाला। डाॅ. गिरीराज भोजक, डाॅ. गिरधारीलाल, डाॅ. सरोज राय व डाॅ. बिजेन्द्र प्रधान ने अतिथियों का स्वागत किया। कार्यक्रम का शुभारम्भ सरस्वती की प्रतिमा के समक्ष दीप प्रज्ज्वलन से किया गया। प्रारम्भ में छात्राओं ने मंगलाचरण व स्वागत गीत प्रस्तुत किया। अंत में डाॅ. भाबाग्रही प्रधान ने आभार ज्ञापित किया। कार्यक्रम का संचालन डाॅ. अमिता जैन ने किया। संगोष्ठी में डाॅ. प्रद्युम्र सिंह शेखावत, डाॅ. सावित्री शर्मा, डाॅ. संतोष शर्मा, शिवानी भेाजक, मनीष चैधरी, भावना पारीक, प्रो. समणी ऋजुप्रज्ञा, डाॅ. आभासिंह, डाॅ. जुगलल किशोर दाधीच, जेपी सिंह आदि राज्य भर से आये शिक्षक उपस्थित थे।
तकनीकी ज्ञान के साथ संस्कारों का बीज-वपन आवश्यक- प्रो. ऋजुप्रज्ञा
24 सितम्बर 2018। जैन विश्वभारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय) के शिक्षा विभाग के तत्वावधान में आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के समापन समारोह की अध्यक्षता करते हुये प्रो. समणी ऋजुप्रज्ञा ने कहा कि वर्तमान में उस शिक्षणशैली की आवश्यकता है, जो विद्यार्थियों में ज्ञानवृद्धि के साथ संस्कारों के बीज भी बो सके। उन्होंने शिक्षण में तकनीक के प्रयेाग को वर्तमान की आवश्यकता बताते हुये कहा कि शिक्षक को तकनीकी संसाधनों पर अपनी निर्भरता कायम नहीं करनी चाहिये। उन्होंने कहा कि शिक्षण शैली वह बेहतरीन है, जिसमंे कक्षा में सरसता बनी रहें, विद्यार्थियों को पढने में आनन्द आये और वे पढाई को बोझ या बोर करने वाला नहीं समझे। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि प्रो. दामोदर शास्त्री ने कहा कि विश्व का कोई भी मूल्य अच्छा या बुरा नहीं होता, बल्कि उसका उपयेाग हम किस रूप में कर रहे हैं और परिस्थितियां कैसी है, इन पर निर्भर करता है। उन्होंने शिक्षण के साथ क्रियात्मकता जरूरी बताते हुये कहा कि क्रियाकलाप शिक्षण को प्रभावी बना देते हैं। अभिज्ञान शाकुन्तलम, गीता आदि ग्रंथों मे आये सरस प्रसंगों को शिक्षणशैली में शामिल करके शिक्षण को रूचिकर, सरस व प्रभावी बनाया जा सकता है। संस्थान के कुलसचिव विनोद कुमार कक्कड़ ने राष्ट्रीय संगोष्ठी के सफल आयोजन की सराहना की तथा कहा कि समस्त शिक्षकों एवं छात्राध्यापिकाओं को इस संगोष्ठी का लाभ मिलेगा तथा इससे शिक्षण शैली में व्यापक सुधार की गुंजाइश बनेगी। संगोष्ठी में राजस्थान व अन्य प्रांतों के विभिन्न महाविद्यालयों व विश्वविद्यालयों से शिक्षकों ने भाग लिया; संगोष्ठी के सम्भागी शिवम मिश्रा व रवीन्द्र मारू ने जैन विश्वभारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय) और राष्ट्रीय संगोष्ठछी की सराहना की। कार्यक्रम का प्रारम्भ मंगलाचरण से किया गया। अतिथियों के स्वागत में मोनिका व समूह ने स्वागत गीत प्रस्तुत किया। अतिथियों का परिचय डाॅ. गिरीराज भोजक ने प्रस्तुत किया। डाॅ. भाबाग्रही प्रधान ने राष्ट्रीय संगोष्ठी की रिपोर्ट पेश की। अंत में विभागाध्यक्ष प्रो. बीएल जैन ने आभार ज्ञापित किया। कार्यक्रम का संचालन डाॅ. गिरधारीलाल शर्मा ने किया। कार्यक्रम में डाॅ. मनीष भटनागर, डाॅ. अमिता जैन, डाॅ. सरोज राय, डाॅ. आभा सिंह, मुकुल सारस्वत, देवीलाल कुमावत, दिव्याराठौड़ आदि उपस्थित थे।
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