जैन विश्वभारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय) का 12वां दीक्षांत समारोह बैंगलोर में आयोजित
हिंसा अंदर की कमजोरी को प्रकट करती है - श्रीश्री रविशंकर
लाडनूँ, 2 नवम्बर 2019। आर्ट ऑफ लिविंग के प्रवर्तक विश्वविख्यात संत श्रीश्री रविशंकर ने कहा है कि हिंसा कोई बल नहीं है, बल्कि वह भीतर की कमजोरी की पहचान है। जो व्यक्ति आत्मबल या आत्मनिष्ठा सम्पन्न है, वह कभी हिंसा का सहारा नहीं लेता। आज अहिंसा परमोधर्मः की आवाज बुलंद करने की आवश्यकता है और यह अहिंसा का संदेश घर-घर पहुंचना चाहिये। वे जैन विश्वभारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय) के 12वें दीक्षांत समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में शनिवार को कर्नाटक के बैंगलुरू में कुम्बुलागुडु स्थित आचार्य महाश्रमण चातुर्मास प्रवास स्थल महाश्रमण समवसरण में सम्बोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा कि जैन संत पैदल चल कर घर-घर में अहिंसा का संदेश दे रहे हैं। वे पुरातन संस्कृति के भाव को क्षीण होने से बचा रहे हैं और शाकाहार को पुनः प्रचारित कर रहे हैं, जिससे अहिंसा के भावों को बल मिल रहा है।
शिक्षा संस्थान में संस्कार व मैत्री भाव पनपे
कार्यक्रम को सान्निध्य प्रदान करते हुये विश्वविद्यालय के अनुशास्ता आचार्य महाश्रमण ने कहा कि हिंसा अंधकार है और मोहजनित होता है। ज्ञान प्रकाश स्वरूप है और ज्ञानी आदमी कभी हिंसा नहीं कर सकता। उन्होंने इच्छा व्यक्त की कि चारों तरफ अहिंसा का प्रकाश फैलना चाहिये, लेकिन हिंसा देखकर निराश भी नहीं होना चाहिये, बल्कि उसे मिटाने का पूरा प्रयास करना चाहिये। उन्होंने एक शेर भी सुनाया- ‘‘माना कि अंधकार घना है, पर दोस्त दीपक जलाना कहां मना है।’’ उन्होंने उपाधि प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों से कहा कि शिक्षा जीवन के लिये बहुत आवश्यक होती है। शिक्षा के प्रति सरकार और जनता दोनों जागरूक हैं, लेकिन उन्होंने कहा कि शिक्षा संस्थानों में संस्कारों का निर्माण भी होना चाहिये। ज्ञान के साथ अच्छे भाव, मैत्री के भाव पनपे और हिंसा के भाव दूर हों यह आवश्यक है तथा साथ ही अभय का विकास भी होना चाहिये। आचार्य महाप्रज्ञ द्वारा अणुव्रतों, प्रेक्षाध्यान और जीवन विज्ञान को शिक्षा में शामिल करके जैन विश्वभारती संस्थान में सद्शिक्षा को प्रभावी बनाया है। उपाधि के साथ यहां से केवल ज्ञान नहीं बल्कि अच्छे संस्कार और संकल्प साथ लेकर जायें तथा परिवार, समाज और देश के लिये समस्या बनने के स्थान पर समाधान बन कर उभरें, तभी यह शिक्षा सार्थक हो पायेगी।
शिक्षा जीवन-रूपान्तरण की ज्योति है
कार्यक्रम के अतिथि केन्द्रीय मंत्री सदानन्द गौड़ा ने श्रीश्री रविशंकर और आचार्य महाश्रमण दोनों को महान धर्मगुरू बताते हुये कहा कि ये व्यक्ति, समाज और पूरे विश्व को तनावमुक्त करने का काम कर रहे हैं। पीईएस विश्वविद्यालय बैंगलोर के कुलाधिपति डी. वी. डोरेस्वामी ने कहा कि अहिंसा धर्म आज की आवश्यकता बन चुका है, परन्तु पूरी दुनिया में फैल रही है, जिससे अहिंसा का प्रसार अत्यन्त आवश्यक बन गया है। साध्वी प्रमुखा कनकप्रभा ने अपने सम्बोधन में कहा कि शिक्षा रूपान्तरण की ज्योत विकसित करती है और जीवन की समग्रता का बोध करवाती है। विद्या के साथ विनम्रता व चरित्रनिष्ठा आदि जीवन-मूल्य भी जुड़ने चाहिये। इस विश्वविद्यालय में ज्ञान प्राप्ति के साथ विद्यार्थियों को जीवन मूल्यों की प्राप्ति भी होती है। उन्होंने शिक्षा को एक तट बताते हुये कहा कि यह कभी मंजिल नहीं हो सकती। शिक्षा के साथ शोहरत, सौंदर्य, सता से आगे जीवन के अन्य क्षेत्रों की तलाश जरूरी है। जैन विश्वभारती संस्थान मान्य विश्वविद्यालय की कुलाधिपति सावित्री जिन्दल ने अपने उद्बोधन में कहा कि दीक्षांत समारोह से जीवन की शुरूआत होती है। आपने जो जानकारियां, शिक्षायें प्राप्त की हैं, उनसे आपके आत्मविश्वास का स्तर बढ जाता है। आज हमारी दुनिया अन्तःस्फोट और बाह्य विस्फोट दोनों खतरों से घिरी हुई है। इनके मुकाबले में आचार्य महाप्रज्ञ व महाश्रमण की शिक्षायें, विचार सक्षम हैं। हमें अहिंसा का मार्ग अपनाना आवश्यक है। वर्तमान हिंसा व कटुता के माहौल में जैन विश्वभारती संस्थान की शिक्षायें महत्वपूर्ण कार्य कर रही हैं। उन्होंने कहा कि जीवन की एक सच्चाई यह भी है कि हमारी शिकायत हमें अपनों से दूर ले जाती है और आभार से हम अपनों के करीब आते हैं।
लाडनूं में नेचुरोपैथी मेडिकल काॅलेज का शिलान्यास 9 को
जैविभा विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बच्छराज दूगड़ ने समारोह में बताया कि संस्थान ने इस मरूधरा के क्षेत्र में शैक्षणिक वातावरण तैयार करने के प्रयास किये हैं, जिसमें सकारात्मक उपलब्धिया मिली है। संस्थान के प्राध्यापकों को राष्ट्रपति पुरस्कार तक मिले हैं तथा यहां के अनेक विद्यार्थियों ने विश्व-रिकाॅर्ड कायम किये हैं। राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के सेमिनार आयेाजन करना यहां की परम्परा रही है। उन्होंने घोषणा की कि जैन विश्वभारती संस्थान में महाप्रज्ञ नेचुरोपैथी एंड योगा मेडिकल काॅलेज एवं होस्पिटल का शिलान्यास 9 नवम्बर को किया जायेगा। दूरस्थ शिक्षा निदेशालय के पृथक भवन का निर्माण भी करवाया जा रहा है। विश्वविद्यालय में बढती छात्रसंख्या को देखते हुये 2 छात्रावासों का निर्माण और करवाया जा रहा है। अतिथि गृह का निर्माण और यातायात सुविधा बढाने का काम भी किया जा रहा है। आचार्य महाप्रज्ञ जन्म शताब्दी समारोह के अवसर पर किये जाने वाले विभिन्न कार्यक्रमों के बारे में भी उन्होंने बताया तथा कहा कि देश-विदेश के विश्वविद्यालयों में व्याख्यानों का आयोजन किया जा रहा है। संस्थान में लाडनूं से 100 किमी की परिधि में यत्र-तत्र मौजूद पांडुलिपियों के संरक्षण का काम भी किया जा रहा है। इस अवसर पर उन्होंने मूलचंद नाहर, धर्मचंद लूंकड़, पदमचंद भूतोड़िया, कमल कुमार लालवाणी की भी सराहना की।
श्रीश्री रविशंकर व सीताराम जिन्दल को डाक्टरेट की मानद उपाधि
कार्यक्रम में कुल 2890 विद्यार्थियों को पीएचडी, एमए, एमएससी, एमएसडबलू, बीएड, एमएड, बीए, बीकाॅम आदि की उपाधियां वितरित की गई। इनमें से मीनाक्षी मारू, रामप्रकाश अरनेजा, प्रगति भूतोड़िया, खयाली राम, कृष्ण कुमार तिवारी, राहुल जैन, मनोज कुमार जैन, राकेश कुमार जैन, जयप्रकाश सिंह, भागीरथ, विजयसागर शर्मा, कार्तिकेश्वर विश्वास, प्रेमलता, चित्रा दाधीच सहित कुल 27 शोधार्थियों को डाक्टर ऑफ फिलोसोफी (पीएचडी) की उपाधियां दी गई। इनके अलावा सर्वोच्च स्थान प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों मुमुक्षु धोकाधरती (अब साध्वी धृतिप्रभा), जितेन्द्र उपाध्याय व प्रिया शर्मा को गोल्ड मैडल प्रदान किये गये। इस अवसर पर विश्वविख्यात धर्मगुरू श्रीश्री रविशंकर को विश्व भर में तनावमुक्त शांत जीवन का वातावरण बनाने के लिये एवं प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति के प्रचार-प्रसार में व्यापक भूमिका निभाने के लिये सीताराम जिन्दल को विश्वविद्यालय की ओर से डी-लिट. की मानद उपाधियां प्रदान की गई। कार्यक्रम में समाजसेवी कमलचंद ललवानी, पदमचंद पटावरी व मूलचंद नाहर का सम्मान भी किया गया। कार्यक्रम का प्रारम्भ आचार्य महाश्रमण के मंगलाचरण से किया गया। अतिथियों का सम्मान कुलाधिपति सावित्री जिन्दल, कुलपति प्रो. बच्छराज दूगड़, जैन विश्व भारती के अध्यक्ष अरविन्द संचेती आदि ने किया। अंत में विश्वविद्यालय के कुलसचिव रमेश कुमार मेहता ने आभार ज्ञापित किया। कार्यक्रम का संचालन रमेश कुमार मेहता व प्रो. आनन्द प्रकाश त्रिपाठी ने किया।
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